ऋग्वैदिक काल (1500 ई.पू. से 1000 ई.पू.) वैदिक सभ्यता(vaidik sabhyata) के
निर्माता
वैदिक सभ्यता(vaidik sabhyata) के
संस्थापक आर्य थे। आर्यों का आरंभिक जीवन मुख्यतः पशुचारण था। वैदिक सभ्यता मूलतः
ग्रामीण थी तथा आयों की भाषा संस्कृत थी।
वैदिक सभ्यता(vaidik sabhyata) की
जानकारी के स्रोत वेद है। इसलिए इसे वैदिक सभ्यता(vaidik sabhyata) के नाम से जाना जाता है।
आयो ने ऋग्वेद की
रचना की, जिसे मानव जाति का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। ऋग्वेद
द्वारा जिस काल का विवरण प्राप्त होता है उसे ऋग्वैदिक काल कहा जाता है।
ऋग्वेद
भारत-यूरोपीय भाषाओं का सबसे पुराना निदर्श है। इसमें अग्नि, इन्द्र, मित्र, वरुण आदि देवताओं की स्तुतियाँ संगृहीत है।
वैदिक सभ्यता(vaidik sabhyata) के
संस्थापक आर्यों का भारत आगमन लगभग 1500 ई.पू के आस-पास
हुआ। हालांकि उनके आगमन का कोई ठोस और स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
आयों के मूल
निवास के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग विचार व्यक्त किए हैं।
अधिकाश विद्वान
प्रो. मैक्समूलर के विचारों से सहमत हैं कि आर्य मूल रूप से मध्य एशिया के निवासी
थे।
भौगोलिक विस्तार
ऋग्वेद में
नदियों का उल्लेख मिलता है। नदियों से आयों के भौगोलिक विस्तार का पता चलता है।
भारत में आर्य
सर्वप्रथम सप्तसैंधव प्रदेश में आकर बसे इस प्रदेश में प्रवाहित होने वाली सात नदियों
का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।
ऋगवैदिक काल की
सर्वाधिक महत्वपूर्ण नदी सिंधु का वर्णन कई बार आया है। ऋग्वेद में गंगा का एक बार
और यमुना का तीन बार उल्लेख मिलता है।
ऋग्वेद की
सर्वाधिक पवित्र नदी सरस्वती थी। इसे नदीतमा (नदिया का प्रमुख) कहा गया है |
सप्तसैंधव प्रदेश
के बाद आर्यों ने कुरुक्षेत्र के निकट के प्रदेशों पर भी कब्जा कर लिया ,उस
क्षेत्र की 'ब्रह्मवर्त' कहा जाने लगा।
गंगा-यमुना के
दोआब क्षेत्र एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्रों पर भी आर्यों ने आधिपत्य स्थापित कर
लिया. जिसे 'ब्रह्मर्षि देश' कहा गया।
आर्यों ने हिमालय
और विध्यांचल पर्वतों के बीच के क्षेत्र पर कब्जा करके उस क्षेत्र का नाम 'मध्य देश' रखा।
कालांतर में आयों
ने संपूर्ण उत्तर भारत में अपना विस्तार कर लिया, जिसे 'आर्यावर्त कहा जाता था।
वैदिक सभ्यता की राजनीतिक
व्यवस्था
भौगोलिक विस्तार
के दौरान आर्यों को भारत के मूल निवासियों, जिन्हें अनार्य
कहा गया है. से संघर्ष करना पड़ा।
दशराज्ञ युद्ध
में प्रत्येक पक्ष में आर्य एवं अनार्य थे। इसका उल्लेख ऋग्वेद के 7वें मंडल में मिलता है।
वह युद्ध रावी
(पुरुष्णी) नदी के किनारे लड़ा गया, जिसमें भारत
कबीले के राजा सदास ने अपने प्रतिद्वद्वियों को पराजित कर भरत कुल की श्रेष्ठता
स्थापित की।
ऋग्वेद में
आर्यों के पाँच कबीलों का उल्लेख मिलता है-पुरु, युद्ध, तुर्वस, अजु, प्रहयु। इन्हें पंचजन' कहा जाता है।
ऋग्वैदिककालीन
राजनीतिक व्यवस्था कबीलाई व्यवस्था पर आधारित थी।
ऋग्वैदिक लोग जनों या कबीलों में विभाजित थे। प्रत्येक
कबीले का एक राजा होता था, जिसे 'गोप'कहा जाता था।
ऋग्वेद में राजा
को कबीले का संरक्षक (गोप्ता जनस्य) तथा पुरन भेत्ता (नगरों पर विजय प्राप्त करने
वाला) कहा गया है।
राजा के कुछ
सहयोगी दैनिक प्रशासन में उसकी सहायता करते थे। ऋग्वेद में सेनापति, पुरोहित, ग्रामजी, पुरुष, स्पर्श, दूत आदि शासकीय पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है। शासकीय
पदाधिकारी राजा के प्रति उत्तरदायी थे। इनकी नियुक्ति तथा निलंबन का अधिकार राजा
के हाथों में था।
ऋग्वेद में सभा, समिति, विदथ जैसी अनेक
कबीलाई परिषदों का उल्लेख मिलता है।
इस काल में
महिलाएँ भी राजनीति में भाग लेती थीं। सभा एवं विदथ परिषदों में महिलाओं की सक्रिय
भागीदारी थी।
सभा श्रेष्ठ एवं
अभिजात्य लोगों की संस्था थी। समिति केंद्रीय राजनीतिक संस्था थी। समिति राजा की
नियक्ति, पदच्युत करने व उस पर नियंत्रण रखती थी। संभवतः यह
समस्त प्रजा की संस्था थी।
ऋग्वेद में
तत्कालीन न्याय व्यवस्था के विषय में बहुत कम जानकारी मिलती है। ऐसा प्रतीत होता
है कि राजा तथा पुरोहित न्याय व्यवस्था के प्रमुख पदाधिकारी थे।
वैदिककालीन
न्यायाधीशों को 'प्रश्नविनाक' कहा जाता था।
न्याय व्यवस्था
वर्ग पर आधारित थी। हत्या के लिए 100 ग्रंथों का दान
अनिवार्य था।
राजा भूमि का
स्वामी नहीं होता था, बल्कि भूमि का स्वामित्व जनता में निहित था।
ग्राम विश और जन
शासन की इकाई थे। ग्राम संभवतः कई परिवारों का समूह होता था।
'विश' कई गाँवों का समूह था। अनेक विशों का समूह 'जन' होता था।
विदथ आर्यों की
प्राचीन संस्था थी।
वैदिक सभ्यता की सामाजिक व्यवस्था(vaidik sabhyata ki samajik vyavstha)
ऋग्वैदिक सभ्यता
ग्राम्य थी। ग्राम ही तात्कालीन समाज की सबसे छोटी इकाई थी।
ऋग्वैदिक समाज
पित्-सत्तात्मक था। पिता संपूर्ण परिवार, भूमि, संपत्ति का अधिकारी होता था जिसे 'कुलप' कहा जाता था।
'पितृ-सत्तात्मक समाज होते हुए इस काल में महिलाओं को यथोचित
सम्मान प्राप्त था। शिक्षा के द्वार महिलाओं के लिए खुले हुए थे।
प्रारंभ में
ऋग्वैदिक समाज दो वर्गों आर्य तथा अनार्य में विभाजित था, किंतु कालांतर में, जैसा कि हम
ऋग्वेद के दशक मंडल के पुरुष सूक्त में पाते हैं कि समाज चार वर्गा-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यऔर शूद्र में
विभाजित हो गया।
इस काल में
मनोरंजन के साधन संगीत के अतिरिक्त रथदौड़, घुड़दौड़, मल्ल युद्ध आदि मनोरंजन के अन्य साधन थे।
संयुक्त परिवार
की प्रथा प्रचलन में थी।
विवाह व्यक्तिगत
तथा सामाजिक जीवन का प्रमुख अंग था। अंतर्जातीय विवाह होता था, लेकिन बाल विवाह का निषेध था। विधवा विवाह की प्रथा प्रचलन
में थी।
पत्र प्राप्ति के
लिए नियोग प्रथा स्वीकार की गई थी। जीवन भर अविवाहित रहने वाली लडकियों को 'अमाजु' कहा जाता था।
सती प्रथा और
पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।
ऋग्वैदिक समाज
में दास प्रथा का प्रचलन था, परंतु यह प्राचीन
यूनान या रोम की भाँति नहीं थी
आर्य मांसाहारी
एवं शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे।
आर्य लोग नमक और
मछली का प्रयोग नहीं करते थे।
ऋग्वैदिक काल के
लोगों में नशीले पेय पदार्थों में सोम और सूरा प्रचलित थी |
मतकों को प्राय:
अग्नि में जलाया जाता था, लेकिन कभी-कभी दफनाया भी जाता था |
ऋग्वैदिक धर्म(rigvaidik dharm)
ऋग्वैदिक धर्म की
सबसे महत्वपूर्ण विशेषता इसका व्यावसायिक एवं उपयोगितावादी स्वरूप था।
ऋग्वैदिक लोग जिस
सार्वभौमिक सत्ता में विश्वास रखते थे वह एकेश्वर्वाद थी।
आर्यों का धर्म
बहुदेववादी था। वे प्राकृतिक भक्तियों-वायु, जल, वर्षा, बादल, आग औ सूर्य आदि की उपासना करते थे।
ऋग्वैदिक लोग
अपनी भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए यज्ञ और अनुष्ठान के माध्यम से प्रकति का
आह्वान करते थे।
ऋग्वेद में
देवताओं की संख्या 33 करोड़ बताई गई है। आर्यों के प्रमुख देवताओं में
इन्द्र, अग्नि रुट मरुत, सोम और सूर्य
शमिल थे।
ऋग्वैदिक काल का
सबसे महत्वपूर्ण देवता इंद्र है। इसे युद्ध और वर्षा दोनों का देवता माना जाता है।
ऋग्वेद में इंद्र का 250 सूक्तों में वर्णन मिलता है।
इंद्र के बाद
दूसरा स्थान अग्नि का था। अग्नि का कार्य मनुष्य एवं देवता के बीच मध्यस्थ स्थापित
करने का था। 200 सूक्तों में अग्नि का उल्लेख मिलता है।
ऋग्वैदिक काल में
मूर्ति पूजा का अस्तित्व नहीं मिलता है।
देवताओं में
तीसरा स्थान वरुण का था। इसे जल का देवता माना जाता है।
ऋग्वेद के एक
मंडल में केवल एक ही देवता की स्तुति में श्लोक है, वह देवता सोम है।
शिव को त्रयंबक कहा गया है।
ऋग्वैदिक देवता(rigvaidik devta)
आकाश के
देवता-सूर्य, घौस, मित्र, पूषण, विष्णु, ऊषा और सविष्ठ
अंतरिक्ष के देवता- इंद्र, मरुत, रुद्र और वायु
पृथ्वी के देवता- अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति और
सरस्वती
पूषण ऋग्वैदिक
काल में पशुओं के देवता थे, जो उत्तर वैदिक काल में शूद्रों के देवता बन गये।
ऋग्वैदिक काल में
जंगल की देवी को 'अरण्यानी' कहा जाता था।
ऋग्वेद में ऊषा, अदिति, सूर्या आदि
देवियों का भी उल्लेख मिलता है।
प्रसिद्ध गायत्री
मंत्र जो सूर्य से संबंधित देवी सावित्री को संबोधित है. सर्वप्रथम ऋग्वेद में
मिलता है।
वैदिक
अर्थव्यवस्था(vaidik arthvyvastha)
कृषि एवं पशुपालन
वैदिक
अर्थव्यवस्था का आधार कृषि एवं पशुपालन था।
गेंहू उपजाया
जाता था।
इस काल के लोगों
को मुख्य संपत्ति गोधन या गाय थी। •
सिचाई का कार्य
नहरों से लिया जाता था। ऋग्वेद में नहर के लिए 'कुल्या' का प्रयोग मिलता है।
उपजाऊ भूमि को 'उर्वरा' कहा जाता था।
ऋग्वेद के चौथे
मंडल में संपूर्ण मंत्र कृषि कार्यों से संबद्ध है।
भूमि निजी संपत्ति
नहीं होती थी। उस पर सामूहिक अधिकार था।
घोड़ा आर्य का अति
उपयोगी पशु था।
आर्यों का मुख्य
व्यवसाय पशुपालन था। वे गाय, बैल, भैस, घोड़े और बकरी आदि पालते थे।
वैदिक सभ्यता की वाणिज्य – व्यापर(vaidik sabhyata ki vanijy -vyapar)
व्यापर हेतु दूर
देशों तक व्यापार करने वाले व्यक्ति को पाणि' कहा जाता है। 'गण' और 'जातका उल्लेख
व्यावसायिक संघ के रूप में किया जाता था।
वाणिज्य-व्यापार
पर पणियों का एकाधिकार था। व्यापार स्थल एवं जल दोनों मार्गो से होता था।
सूदखोर को 'वेकनॉट’ कहा जाता था। क्रय विक्रय के लिए विनिमय प्रणाली का
आविर्भाव हो सका या।
गाय और निष्क
विनिमय के माध्यम था अखर में कहीं पर भी जगरों का उल्लेख नहीं मिलता है। इस काल
में सोना, ताँबा, और काया भात ओं
का प्रयोग होता था
ऋण देने और लेने की प्रथा प्रचलित थी, जिसे 'कुसीद' कहा जाता था।
व्यवसाय एवं उद्योग-धंधे
ऋग्वेद में बढई
रथकार, बनकर, चर्मकार, कुम्हार आदि कारीगरी उल्लेख से इस काल के व्यवसाय पता चलता
है। \
तांबे और कांसे के
अर्थ में आपस का प्रयोग यह संकेत करता है कि धातु कर्म एक उद्योग था|
ऋग्वेद में वैध
के लिए भीषक शब्द का प्रयोग मिलता है। करघा' का 'तया' कहा जाता था बढई के लिए 'लमण' शब्द का उल्लेख मिलता है।
मिटटी के बर्तन
बनाने का कार्य एक व्यवसाय था।
वैदिक साहित्य(vaidik sahity)
ऋग्वेद स्तति मंत्रों का संकलन है। इस मंडल में विभक्त ऋग्वेद में 1017 सूक्त 11 बालखिल्य सूत्रों को जोड़
देने पर कुल सूक्तो की संख्या 1028 हो जाती है।
दशराज्ञ युद्ध का
वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। यह ऋग्वेद की सर्वाधिक प्रसिद्ध एतिहासिक घटना मानी
जाती है।
ऋग्वेद में 2 से 7 मण्डलों की रचना
हुई, जो गुल्समद, विश्वमित्र, वामदेव अभी , भरद्वाज, और वशिष्ठ, ऋषियों के नाम से हैं।
ऋग्वेद का नाम
मंडल पूरी तरह सोम को समर्पित है।
प्रथम एवं दसवे
मंडल की रचना संभवतः सबसे बाद में की गई। इन्हें 'सतरचीन’कहा जाता
है |
गायत्री मंत्र
ऋग्वेद के तीसरे मंडल से उद्धत है।
शुद्र शब्द का उल्लेख
सर्वप्रथम ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में हुआ है |
10वेंमंडल में मृत्यु सूक्त है, जिसमें विधवा के
विलाप का वर्णन है।
ऋग्वेद के दसवे
मंडल के 95 वें सूक्त में पुरुरवा, ऐल और उर्वशी बुह
संवाद है।
ऋग्वेद के नदी सूक्त
में व्याम (विपाशा) नदी का परिगणित' नदी कहा गया है।